भारत में निर्धनता और बेरोजगारी, सबसे बड़ी आर्थिक-सामाजिक चुनौती

भारत में निर्धनता और बेरोजगारी विश्व के सभी अल्प-विकसित या विकासशील देशों में, जहाँ प्रति व्यक्ति आय बहुत कम है, आय की असमानताओं और बेरोजगारी ने कई बुराइयों को जन्म दिया है जिनमें से सर्वाधिक गंभीर बुराई निर्धनता या गरीबी है। तात्पर्य यह है कि निर्धनता, असमानता और बेरोजगारी के मध्य बहुत नजदीकी सम्बंध है। वैश्वीकरण की ओर तीव्रता से बढ़ते हुए भारत की सबसे बड़ी आर्थिक-सामाजिक चुनौती निर्धनता की है, जबकि क्रय शक्ति की दृष्टि से भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था बन चुकी है। 21वीं शताब्दी में प्रवेश कर चुके अधिकांश भारतीयों की मान्यता है कि वैश्वीकरण प्रक्रिया से गरीबों की मुश्किलें कम करने के सपने साकार नहीं हुए हैं।

निर्धनता की अवधारणा

सामान्यतः जीवन, स्वास्थ्य तथा दक्षता के लिए न्यूनतम उपभोग आवश्यकताओं को प्राप्त करने में सामाजिक क्रिया की अयोग्यता को ही निर्धनता कहते हैं। जब समाज का एक बहुत बड़ा भाग न्यूनतम जीवन-स्तर प्राप्त करने में असफल रहता है तथा केवल निर्वाह स्तर पर ही गुजारा करता है, तो इसे समाज में व्यापक निर्धनता की संज्ञा दी जाती है।

निर्वाह स्तर को सापेक्ष या निरपेक्ष दृष्टि दे देखा जा सकता है तथा निर्धनता की अवधारणा का सापेक्ष एवं निरपेक्ष दोनों रूपों में विश्लेषण किया जा सकता है। सापेक्ष दृष्टि से निर्धनता का परिभाषित करने हेतु विभिन्न वर्गों या देशों के निर्वाह स्तर की तुलना करके निर्धनता की सापेक्षित दशा का निर्धारण किया जाता है।

निर्वाह स्तर को आय या उपभोग-व्यय क रूप में मापा जाता है। इस दृष्टि से विकसित देशों की तुलना में भारतीय बहुत निर्धन ठहरते हैं। उल्लेखनीय है कि देश के अंदर समाज के सबसे ऊपर से 5 से 10 प्रतिशत लोगों और सबसे नीचे 5 से 10 प्रतिशत लोगों के निर्वाह स्तर की तुलना करके निर्धनता का पता लगाया जाता है।

निरपेक्ष दृष्टि से उन लोगों को निर्धन कहा जाता है जिनको निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताएँ (खाद्यान्न, दूध, सब्जी, कपड़े या कैलोरी प्राप्ति के रूप में) भी प्राप्त नहीं हो पातीं। चूँकि भारत में बड़ी न्यूनतम पोषक आहार नहीं मिल पाता इसलिए यहाँ निर्धन लोगों की पहचान के लिए निरपेक्ष मापदण्ड को निर्धनता रेखा आँकड़ों का भारत में निर्धनता रेखा का निर्धारण पोषण के आहार पर होता है क्योंकि यहाँ निर्धनता का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू कुपोषण को माना जाता है।

योजना आयोग ने एक वैकल्पिक परिभाषा

योजना आयोग ने एक वैकल्पिक परिभाषा अपनाई है, जिसमें पोषण के आहार का आधार कैलोरी को बनाया गया है। इस परिभाषा के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में एक व्यक्ति के प्रतिदिन के भोजन में, 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्र में एक व्यक्ति के प्रतिदिन के भोजन में 2100 कैलोरी होना चाहिए।

पोषक आहार सम्बंधी इन न्यूनतम आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर 1973-74 के मूल्यों पर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 49.09 रुपए और नगरीय क्षेत्रों के लिए 56.64 रुपए प्रतिमाह की निर्धनता रेखाएँ निर्धारित की थी, जो वर्तमान मूल्यों पर योजना आयोग द्वारा संशोधित होती रहती हैं।

अत: यह कहना सबसे उचित है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन और शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पोषक आहार जिन लोगों को उपलब्ध नहीं है, उन्हें निर्धनता रेखा से नीचे माना जाएगा। इसे प्रत्यक्ष तौर पर मापना संभव नहीं होता है।

अतः उपयोग कर इसे न्यूनतम पोषण के लिए आवश्यक आय में बदल दिया जाता है। यह प्रक्रिया भारत में राज्यवार की जाती है तथा इसमें राज्य स्तर पर मूल्यों आदि का ध्यान रखा जाता है।

निर्धनता रेखा पर आधारित दृष्टिकोण की सीमाएँ

एक बार निर्धनता रेखा का निर्धारण हो जाने के बाद इसके नीचे निर्वाह करने वाले लोगों के अलग-अलग वर्गों की वास्तविक दशा पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता। निर्धनता रेखा के नीचे सबसे निम्न स्तर पर जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति जिन भयावह स्थितियों से गुजर रहा होगा, उसे निर्धनता रेखा द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता।

जब कि पूरे देश में कमोबेश इस प्रकार के दृश्य दिखाई देते हैं-स्थाई दुर्गंध में लिपटी हुई गंदी झुग्गी-झोपड़ियाँ, युवा माताएँ जिनके लिए प्रसूति मात्र आनंद का द्वार नहीं बल्कि मृत्यु की शैया है; नवजात शिशु जिनमें से बहुत मुस्कराने से पहले ही पंचतत्व में विलीन हो जाते हैं;

बेरोजगार (बेरोजगारी क्या और नौकरी की तलाश) युवक जो जीवन यापन हेतु अपराध में लिप्त हो चुके हैं तथा ईंधन व भोजन की तलाश में खुले स्थानों में चीथड़ों में विचरती युवतियाँ और बच्चे। मानव गरिमा का प्रतिवाद निर्धनता भारत में एक विकट समस्या है। इस संदर्भ में अमर्त्य सेन का यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि निर्धनता कोई एक आर्थिक वर्ग नहीं है बल्कि बहुत-सी आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम है। इसलिए इसके निवारण के लिए स्वयं निर्धनता की संकल्पना से परे जाना होगा।

अमर्त्य सेन के अनुसार

अमर्त्य सेन के अनुसार निर्धनता के विश्लेषण में दो चरण होने चाहिए। प्रथम चरण में इसका निर्धारण होना चाहिए अलग-अलग लोगों को कितना मिला और इस आधार पर प्रति व्यक्ति आय के किसी मापदण्ड के सहारे निर्धनों की गणना होनी चाहिए।

द्वितीय चरण में इसका निर्धारण होना चाहिए कि स्थिति वास्तव में कितनी खराब है और यह दुसरी खराब स्थिति से कितनी भयावह है। अर्थात् यह जानना सबसे महत्त्वपूर्ण है कि निर्धन लोग कितने निर्धन हैं, न कि यह जानना कि निर्धनता रेखा से नीचे कितने लोग निर्वाह कर रहे हैं। –

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निर्धनों का वर्ग आधार

दुर्भाग्यवश सरकार ने निर्धनों का वर्ग आधार तय करने की दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किया है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आँकड़ों का सहारा लेकर कुछ अर्थशास्त्रियों ने निर्धनों का वर्ग आधार तय करने का प्रयास किया है। इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार निर्धनों में अधिकतर भाग निम्नलिखित लोगों का है

कुल खेतिहर मजदूरों का लगभग 60 प्रतिशत जिनके पास भूमि बिल्कुल नहीं है। कुल खेतिहर मजदूरों का लगभग 40 प्रतिशत जिनके पास बहुत थोड़ी-सी भूमि है। ऐसे ग्रामीण श्रमिकों के परिवार (ग्रामीण दस्तकार परिवार सहित जिनके परंपरागत रोजगार समाप्त हो चुके हैं) जो खेती नहीं करते और जिनके पास भूमि भी नहीं है। 2 हेक्टेयर से कम (विशेष रूप से एक हेक्टेयर से कम) भूमि पर खेती करने वाले किसान।

जहाँ तक शहरी क्षेत्रों में निर्धनता का सवाल है, यहाँ भी उसके वर्ग विशेष का हिस्सा है, जिसका हिसा ग्रामीण निर्धन लोग हैं। लेकिन लंबी अवधि तक शहरों में निवास के कारण इनमें कुछ स्पष्ट विशेषताएँ बन जाती हैं। तीव्रता से हो रहे शहरीकरण में शहरी क्षेत्रों में निर्धनों के जीवन यापन के सम्बंध में कोई स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है।

भारत में निर्धनता के अनुमान

भारत में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के उपभोक्ता व्यय आँकड़ों का प्रयोग करके बहुत से अर्थशास्त्रियों एवं संस्थाओं ने निर्धनता के निर्धारण के लिए अपनी अलग-अलग संकल्पनाएँ प्रस्तुत की हैं, जिससे उनके गरीबी सम्बंधी अनुमान कुछ अलग-अलग हैं फिर भी इन सभी अनुमानों का आधार 2250 कैलोरी के बराबर पोषक आहार का मूल्य ही है।

Yojna आयोग भी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के आँकड़ों के आधार पर ही निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों की संख्या का अनुमान लगाता रहा है। यहाँ तक कि विश्व बैंक ने अपने देश सम्बंधी अध्ययन भारत: निर्धनता रोजगार एवं सामाजिक सेवाएँ (1989) में निर्धनता रेखा निर्धारित करने के लिए वही विधि अपनाई है, जो योजना आयोग ने अपनाई थी। इसके बावजूद निर्धनता रेखा से नीचे निर्वाह करने वाले लोगों का मुद्दा सदैव विवादास्पद बना रहा।

योजना आयोग के विशेषज्ञ दल की रिपोर्ट

योजना आयोग ने सितम्बर 1989 में भारत में निर्धनों की संख्या और अनुपात के अनुमान की कार्यविधि एवं परिकलन के विभिन्न पहलुओं पर पुनर्मूल्यांकन करने हेतु प्रोफेसर डी.टी.लकड़ावाला की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल का गठन किया।

इस विशेषज्ञ दल ने योजना आयोग की निर्धनता रेखा निर्धारण की परम्परागत प्रणाली तथा इसके आधार पर देश में निर्धनों के अनुमानित जनसंख्या निर्धारण को अविश्वसनीय बताते हुए अपनी रिपोर्ट जुलाई, 1993 में प्रस्तुत की।

रिपोर्ट में विशेषज्ञ दल ने निर्धनता रेखा निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित सिफारिशें की जिसका न्यूनतम आवश्यकताओं एवं प्रभावी उपयोग माँग के पूर्वानुमान पर कार्यदल द्वारा निर्धनता रेखा को आधार रेखा माना जाना चाहिए। मूलाधार 1973-74 में वर्तमान उपभोग ढाँचे के आधार पर ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी उपभोग हो।

इस मानदण्ड को देश के सभी राज्यों के लिए समान रूप से स्वीकार किया जाए। चूँकि 1973-74 के आधार वर्ष में बहुत अधिक सुव्यवस्थित कार्य हो चुका है, अतः इस आधार वर्ष को ही निर्धनता रेखा के अनुमान के लिए जारी रखना चाहिए।

राज्यीय विशेष निर्धनता रेखा का अनुमान

राज्यीय विशेष निर्धनता रेखा का अनुमान लगाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धनता रेखा के अनुरूप मानवीकृत वस्तु समूह का प्रत्येक राज्य में आधार वर्ष (1973-74) में वर्तमान मूल्यों के अनुसार मूल्य प्राप्त करना चाहिए। अर्थात् सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में अलग-अलग निर्धनता रेखा का निर्धारण होना चाहिए।

ग्रामीण निर्धनता रेखा को अद्यतन बनाने के लिए कृषि श्रमिकों (खेती के लिए कृषि भूमि कैसे तैयार करें?) के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का प्रयोग होना चाहिए जबकि शहरी निर्धनता रेखा को अद्यतन बनाने हेतु औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक एवं गैर-शारीरिक कर्मचारियों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की साधारण चाहिए।

योजना आयोग ने 11 मार्च, 1997 को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सम्पन्न बैठक में लकड़ावाला समिति (विशेषज्ञ दल) की सिफारिशों को निर्धनता रेखा के निर्धारण हेतु स्वीकार कर लिया तथा इसके तहत 1993-94 में निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों की संख्या 35.97 प्रतिशत आकलित औसत का प्रयोग की गई।

भारत में निर्धनता अनुमान

भारत में निर्धनता का अनुमान योजना आयोग राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा उपभोक्ता व्यय के सम्बंध में सर्वेक्षित किए गए वृहद् नमूना सर्वेक्षण आँकड़ों के आधार पर लगभग पाँच वर्ष के अंतराल पर राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर किया जाता है। सरकार के एक केंद्रक अभिकरण के रूप में योजना आयोग ने,

लगभग प्रत्येक पाँच वर्ष में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा संचालित पारिवारिक उपभोक्ता व्यय पर बड़े पैमाने पर नमूना सर्वेक्षण करके राष्ट्रीय और राज्य स्तरों पर गरीबी के प्रभाव क्षेत्र का अनुमान लगाया है।

वर्ष 2005-06 के लिए अद्यतन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 61वें दौर के आँकड़े प्रकट करते हैं कि यदि यूनिफार्म रिकाल पीरियड (जिसमें 30 दिवसीय प्रत्याहान अर्थात् रिकाल पीरियड से सभी मदों के लिए उपभोक्ता व्यय के आँकड़े एकत्र किए जाते हैं) प्रयोग किया जाए तो राष्ट्रीय स्तर निर्धनता का अनुपात 27.5 प्रतिशत था।

जबकि मिक्स्ड रिकाल पीरियट (एमआरपी, जिसमें पाँच खाद्य भिन्न मदों, यथा वस्त्र, जूते चप्पल, टिकाऊ वस्तुएँ, शिक्षा और संस्थागत चिकित्सालय शामिल हैं, के उपभोक्ता व्यय के आंकड़े 365 दिवसीय प्रत्याह्न से एकत्र किए गए हैं और शेष पदों के लिए उपभोक्ता आँकड़े 30 दिवसीय प्रत्याह्वान से एकत्र किए। गए हैं) का प्रयोग किया जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर निर्धनता का अनुपात 21.8 प्रतिशत था।

निर्धनता का तदनुरूप अनुमान

वर्ष 1993-94 के लिए यूआरपी आधारित निर्धनता का तदनुरूप अनुमान 36.0 प्रतिशत था। उल्लेखनीय है कि निर्धनों की संख्या दो दशकों (1973-93) के काफी लंबे अंतराल तक लगभग 32 करोड़ पर स्थिर रही थी, जो मुख्यतया जनसंख्या में वृद्धि के कारण हुआ था।

वित्तीय वर्ष 1999-2000 में राज्यों की दृष्टि से देश में सर्वाधिक निर्धनता अनुपात उड़ीसा का था, जहाँ लगभग आधी जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे थी। (भारत का क्षेत्रफल और जनसंख्या के अनुसार सबसे छोटा राज्य) इसके बाद दूसरा और तीसरा स्थान क्रमश: बिहार और मध्यप्रदेश का था, जहाँ क्रमश: 42.60 प्रतिशत और 37.43 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे थी।

भारत में निर्धनता के कारण

भारत में निर्धनता उत्पन्न करने वाले कारणों को दो वर्गों में रखा जा सकता है-आर्थिक और सामाजिक। इन दो वर्गों के अंतर्गत प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं

आर्थिक कारक तीव्र जनसंख्या वृद्धि व्यापक बेरोजगारी और स्वरोजगार मूल्य वृद्धि की तुलना में कम आय वृद्धि वैकल्पिक व्यवसाय के अभाव में कृषि पर निर्भरता अपर्याप्त उत्पाद रोजगार तथा परिसम्पत्तियों का अभाव उत्पादन के साधनों तथा आय का असमान विवरण पूँजी का अभाव,

उपक्रम की कमी तथा व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा के अवसरों पर असमानता कृषि और उद्योगों में निम्न उत्पादिता स्तर निम्न स्तरीय आर्थिक गतिविधियों में संलग्नता निम्न मजदूरी दर, आदि।

सामाजिक कारक विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय असमानता शिक्षा का अपर्याप्त प्रसार सामाजिक व धार्मिक रूढ़िवादिता भारतीयों की आत्मसंतुष्टि एवं समझौतावादी दृष्टिकोण सामाजिक रीति-रिवाजों में सामर्थ्य से अधिक व्यय करना संयुक्त कुटुम्ब प्रणाली और जाति प्रथा, आदि।

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